Friday, October 19, 2007

`बाहर´ से आने वालों का सच

कुमाऊं के श्रेष्ठियों में खुद को राजवंशों से जोड़ने का शगल बड़ा पुराना है। किसी पंडित जी से उनकी रागभाग पूछो तो तत्काल बताएंगे कि हम फलां राजपुरोहितों के वंशज है और हमारे पुरखे उत्तर प्रदेश, महराष्ट्र, बंगाल या राजस्थान आदि से यहां आकर बस गए थे। ठाकुर साहबान भी महाराणा प्रताप से अपनी वंशावली जोड़ने में देर नहीं लगाते। खास तौर पर देस-परदेस में रहने वाले श्रेष्ठियों को ऐसी बातों में बड़ा मन लगता है। ऊंची शिक्षा और अच्छी पोजीशन वाले पहाड़ी इन बातों को खूब तवज्जो देते हैं। श्रेष्ठियों के बड़े-बूढ़ों ने कभी अपने `बाहरी´ मूल का होने की यह कहानी गढ़ी होगी। जिसे समय-समय पर अनपढ़ इतिहासकारों ने श्रद्धा-भक्ति के साथ स्वर्णाक्षरों में आगे बढ़ाया और यह अब यह धारणा इतनी रूढ़ हो चली है कि आम पर्वतवासी इसे अपनी विरासत मानकर अगली पीढ़ियों को सौंपते हैं।

कुछ वर्ष पहले हमने इस `ऐतिहासिक´ कहानी के सूत्रों को तलाशने की कोशिश की। कुमाऊं के श्रेष्ठियों की बाहरी मूल की अवधारणा को सबसे व्यवस्थित ढंग से पं बद्री दत्त पाण्डे ने अपनी पुस्तक `कुमाऊं का इतिहास´ में लिखा है। यह पुस्तक उन्होंने जेल में रहते लिखी थी। यह भी ध्यान देने लायक तथ्य है कि पाण्डे जी इतिहासकार नहीं थे और इस बात को उन्होंने अपनी भूमिका में विनम्रतापूर्वक स्वीकार भी किया है। बावजूद इसके उन्होंने पुस्तक को इतिहास शीर्षक दिया, यह बात हैरान करने वाली है। पुस्तक के माध्यम से उन्होंने विभिन्न जातियों को उनके `मूल´ के आधार पर श्रेणीबद्ध करने का भी प्रयास किया है। उन्होंने बताया है कि कुमाऊं की कौन सी जाति कहां से आई और कितनी श्रेष्ठ है। मजेदार बात यह है कि उन्होंने यह कहीं नहीं बताया कि ऐसा उन्होंने किन साक्ष्यों के आधार पर कहा। पाण्डे जी ने तो अपने संदर्भों का कहीं जिक्र नहीं किया लेकिन यहां हम बताते हैं कि उन्होंने यह `बाहरी मूल´ की थ्योरी कहां से मारी। कुमाऊं की श्रेष्ठ जातियों के बाहरी होने संबंधी धारणा का जिक्र सबसे पहले अंग्रेज गजटकार एटकिंसन ने किया था। उन्होंने अपने प्रसिद्ध गजेटियर में लिखा है कि कुमाऊं की कतिपय ऊपरी जातियां खुद को बाहर से आया हुआ बताती हैं। लेकिन एटकिंसन को इस धारणा पर विश्वास नहीं हुआ, इसलिए उन्होंने साथ में यह भी जोड़ा है कि भाषा-बोली, रहन-रहन और दूसरी सांस्कृतिक मान्यताओं को देखते हुए इस पर सहसा विश्वास नहीं होता।

उत्तराखण्ड में उपलब्ध कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य (प्राचीन शिलालेख, दानपात्र, ताम्रपत्र, बही आदि) किसी काल विशेष में यहां बाहरी लोगों (पड़ोसी नेपाल के अलावा) के आ बसने की पुष्टि नहीं करता। यदि ऐसा कोई साक्ष्य किसी सज्जन की नजर से गुजरा हो तो कृपया ज्ञानवर्धन करें।

आप खुद भी सोचिए, जो लोग खुद को महाराष्ट्र या किसी अन्य राज्य के राजा या राजपुरोहित का वंशज बताते हैं, अपने रीति-रिवाजों, पूजा पद्धतियों और भाषा बोली में स्थानीय संस्कृति का अनुसरण क्यों करते है? वे शासक थे। उनके लिए पिछड़े खसों की संस्कृति को अपनाने की कोई मजबूरी भी नहीं थी। उन्होंने अपनी श्रेष्ठ संस्कृति को बचा कर क्यों नहीं रखा? क्यों कमतर जातियों की भाषा-बोली को अपनाया और उनके देवी-देवताओं और भूत-प्रेतों को अपना अराध्य मान पूजना शुरू किया?

उत्तराखण्ड का अतीत हमेशा पिछड़ा नहीं रहा। खास तौर पर कत्यूरी काल स्थापत्य और अन्य विधाओं में अपेक्षाकृत उन्नत रहा है। लगभग इसी दौर से यहां के लोग धातुशोधन सीख चुके थे। प्रख्यात पुरातत्वविद प्रो दी पी अग्रवाल के अनुसार इस जमाने में गंगा-यमुना के मैदान को लोहा और तांबा उत्तराखंड से ही जाता था। पहाड़ के लोग दूसरी शताब्दी से जलशक्ति का इस्तेमाल करना जाते थे। आज घराट (पनचक्की) हमें तकनीकी दृष्टि से जरूर मामूली लग सकती है, लेकिन दूसरी शताब्दी के हिसाब से यह एक बड़ी तकनीकी उपलब्धि कही जाएगी। कत्यूरी काल के मंदिर स्थापत्य के लिहाज से परवर्ती चंदकाल से कहीं उन्नत है। यह दौर शानदार काष्ठकला का भी है। यदि हमारी सभी श्रेष्ठ जातियां बाहर से आई तो ज्ञान-विज्ञान की इस समृद्ध विरासत का सबंध किनसे है?

`बाहरी´ धारणा का खोखलापन उस वक्त पूरी तरह उजागर हो जाता है, जब इसके अनुयायियों से उनकी वंशावलियों का ब्यौरा मांगा जाता है। लोग कहते हैं कि उनके पुरखे मुगलों के अत्याचार (खासतौर पर औरंगजेब के) से बचने के लिए पहाड़ों की ओर आ गए। लेकिन भारत के लिखित इतिहास में ऐसा जिक्र कहीं नहीं मिलता। मजेदार तथ्य यह भी है कि औरंगजेब अपेक्षाकृत नए शासक थे। उनका शासनकाल 1658-1707 है। अब इस काल से बाहर से आने वालों की वंशावलियों का गणित मिलाइए, सारी हकीकत सामने आ जाएगी (इतिहास में एक पीढ़ी को लगभग 20-25 वर्ष माना जाता है)।
आज के लिए इतना ही। इस विमर्श को आगे बढ़ाने का जिम्मा ब्लॉग के दूसरे पायों पर। स्वामी जी के अगले पोस्ट में कुमाऊं के वाशिंदों के मूल की वैकल्पिक अवधारणा पेश की जाएगी।

नोट: कुमाऊं के इतिहास का यह विमर्श गढ़वाल के श्रेष्ठियों पर भी शब्दश: लागू होता है। वहां बद्री दत्त पाण्डे की भूमिका निभाते हुए पं हरिकृष्ण रतूड़ी ने 1928 में `गढ़वाल का इतिहास´ लिख डाला।

5 comments:

Unknown said...

chaliye ek shubh kam to apne kiya, bhale hi apna nanv-giranv chhupa kar. ab itihas to bahas ka hi vishay bataya ja sakta hai aur apki bahas ka to abhi thik se mangalacharan bhi nahin hua hai. han ek bat is samay kahana shayad apransangik nahin ho. itihas ki in galat samjhi jane vali dharnaon ko aj ke samajik sandarbhon ke alok mein bahas mein lana jyada thik rahega. varna pahad aur pahadiyon ki tarah hamari tamam chaintayen bhi jivan se interior bani rahengi.
vipin

ghughutibasuti said...

हो सकता है जो आप कह रहे हैं वह सही हो । परन्तु पंत पहाड़ के आस पास के इलाकों में नहीं पाए जाते । वे पाए जाते हैं महाराष्ट्र में । जोशी भी महाराष्ट्र में पाए जाते हैं । पाँडे कन्नौज में । एक और बात भी है बाँकी पहाड़ी सुन्दर गौर वर्ण के और कुछ मंगोल से चेहरे मोहरे वाले। उन्हें देखते से ही कोई भी उन्हें पहाड़ी कहने से नहीं हिचकेगा । पर मेरे गिनाए नामों वाले लोग बहुत कम ही पहाड़ी लगते हैं । बहुत से तो रंग में भी पहाड़ी नहीं लगते । हाँ मन से वे पहाड़ी हैं ।
पूरे के पूरे उत्तर भारत में मंगलसूत्र का चलन नहीं है, किन्तु वही मंगलसूत्र चरयो का रूप ले कुमाऊँ में कहाँ से आया ? जितना पलयो हम खाते हैं उतना कढ़ी के रूप में मराठियों के सिवाय शायद ही कोई खाता होगा ।
अच्छा होगा इस चर्चा को फिर से आगे बढ़ाया जाए ।
घुघूती बासूती

ghughutibasuti said...

एक बात और , कल ही मैं एक मित्र से सिटौल पक्षी की चर्चा कर रही थी और कह रही थी कि उन्हें देखे एक जमाना बीत गया है । उनकी फोटो लगाने के लिए धन्यवाद ।
घुघूती बासूती

दीपा पाठक said...

दिलचस्प पोस्ट है, हालांकि इतिहास का इ भी मुझे नहीं आता और मेरी ज्यादा दिलचस्पी भी नहीं हैं इस विषय में। लेकिन अपने इलाके के बारे में कुछ भी हो पढ कर अच्छा लगा।

Tarun said...

swamiji dhanya hain itni information dene ke liye, kumaon ke itihaas per ek post mene bhi likhi this lekin woh kuch dusre terah ki this.

http://www.readers-cafe.net/uttaranchal/2006/09/04/short-history-of-kumaon/